Sunday, November 06, 2011

तू

ऐ मेरी कविता की भूमिका, तू सिर्फ कविता में नहीं है |
तेरी आहट से महका है ये गुलशन, तू सिर्फ गुलिस्तां में नहीं है |
तेरा एहसास है हर दम इन साँसों में, मौजूदगी का आलम ये
कि रखूं नयन खुले तो लगे है पर्दा सा, बंद कर लूं तो तू कहाँ नहीं है ?

अजनबी हैं हम, मुलाकातों का सफ़र अभी अधूरा है |
रिवाज़ों की एक दीवार है, समाजों का एक पहरा है |
इस इंतज़ार में कि होंगे शुष्क होठ उन होठों से गीले,
तन्हाई का ये लम्हा और भी हसीन और सुनहरा है ||

ये लम्हे एक दिन गुज़र जायेंगे, दीवारें भी ढह जाएँगी,
जब आप होंगी हमसे रु-ब-रु, तनहाइयाँ तनहा रह जाएँगी |
पतझड़ में भी फूल खिलेंगे, बिन सावन बादल बरसेंगे |
और ये बीते तनहा लम्हे महफ़िलों को तरसेंगे ||

तेरे आने का ही ज़िक्र है हर जुबां पर, और क्या कहूँ?
कि होठ सूख चले हैं, पर मन कहता है कि इन्तहा नहीं है |
"क्षितिज" इतना ही कहूँगा कि अब आजा जीवन में ख्वाबों से निकल कर |
सिर्फ मेरी कविता में ही कैद रहना तेरा दायरा-ए-जहाँ नहीं है ||