Sunday, November 06, 2011

तू

ऐ मेरी कविता की भूमिका, तू सिर्फ कविता में नहीं है |
तेरी आहट से महका है ये गुलशन, तू सिर्फ गुलिस्तां में नहीं है |
तेरा एहसास है हर दम इन साँसों में, मौजूदगी का आलम ये
कि रखूं नयन खुले तो लगे है पर्दा सा, बंद कर लूं तो तू कहाँ नहीं है ?

अजनबी हैं हम, मुलाकातों का सफ़र अभी अधूरा है |
रिवाज़ों की एक दीवार है, समाजों का एक पहरा है |
इस इंतज़ार में कि होंगे शुष्क होठ उन होठों से गीले,
तन्हाई का ये लम्हा और भी हसीन और सुनहरा है ||

ये लम्हे एक दिन गुज़र जायेंगे, दीवारें भी ढह जाएँगी,
जब आप होंगी हमसे रु-ब-रु, तनहाइयाँ तनहा रह जाएँगी |
पतझड़ में भी फूल खिलेंगे, बिन सावन बादल बरसेंगे |
और ये बीते तनहा लम्हे महफ़िलों को तरसेंगे ||

तेरे आने का ही ज़िक्र है हर जुबां पर, और क्या कहूँ?
कि होठ सूख चले हैं, पर मन कहता है कि इन्तहा नहीं है |
"क्षितिज" इतना ही कहूँगा कि अब आजा जीवन में ख्वाबों से निकल कर |
सिर्फ मेरी कविता में ही कैद रहना तेरा दायरा-ए-जहाँ नहीं है ||

Wednesday, September 28, 2011

Us...



Smiles all around, may no grieves surround.
Let nothing stop the pace, whatever we may face.
Together we are, together we will be.
Nothing can keep you far away from me.

Whatever may be the situation, whatever may be the condition.
Smiles should always be around, happiness should always find us.
No one should be sad, no one should feel alone.. I know,
you'll hold hands of each other, for it is care for each other that binds us.

(Dedicated to our family and uncleji (this poem is written on his behalf ...)

Monday, May 23, 2011

गर उसने हाँ कर दी होती....

Thanks to AD (Anu Didi), who convinced me to post it. :-) 

दिल की एक तन्हा धड़कन दूसरी धड़कन से कहती |
गर उसने हाँ कर दी होती, आज जिंदगी अलग ही होती ||

हाथ में मोबाइल ना होता, ना ही पीछे खिड़की होती | 
गुलाबी साड़ी में लिपटी, नजरें झुकी झुकी सी रहती |
सर पे बिंदी आँख में काजल, काले बाल संवारा करती |
ऐसे नज़ारे पे ये नज़रें बस उनको ही "निहारा" करती |
ये भी होता, वो भी होता, जाने क्या हद कर दी होती |
किन्तु यह सब तो तब होता, गर उसने हाँ कर दी होती || 

बूँद बूँद से गागर भरता, राहगीर प्यासा न रहता |
आवारा बादल नदियों की प्यास पर न्योछावर होता |
सब नदियाँ एक धारा बनकर सागर की हैं प्यास बुझाती |
दूर गगन नक्षत्र निवासी, होती काश 'क्षितिज' की प्यासी |
इस मरू भूमि पर भी ओंस की एक बूँद मुस्काती |
किन्तु यह सब तो तब होता गर वो हमसे मान ही जाती  || 

सबके साथी, हम अकेले, एक आकांक्षा अपनी भी थी |
हाथों में एक हाथ होता, एक सर होता इस काँधे भी |
चांदनी जैसे नील गगन में, रहती वो भी इस मन में |
सागर के संग जैसे लहरें, और दीये संग जैसे बाती |
इस सूने आंगन में भी एक छम छम सी पायल इठलाती |
किन्तु यह सब तो तब होता गर वो हमसे मान ही जाती ||

क्षमा प्रार्थी जो कहा उनको कि चाहे 'कोई' भी होती |
'किसी' को भी हमने तो बस 'हाँ' ही कर दी होती |
कहत क्षितिज! ऐ नादाँ, गर नादानी न कर दी होती |
ना सिर्फ मेरी, आज तेरी भी ज़िन्दगी अलग ही होती ||